रविवार, 10 अगस्त 2014

आज




                                                      

आज सुबह
नहीं खिली
धूप |

आज के दिन  
बाधित रहा
विद्युत प्रवाह |

कोहरे में घिरी
चिड़िया ने
बेमन से चुगा दाना |

जल भरा पात्र
हलके से छूकर
उड़ गयी गौरय्या |

बोगेनवेलिया के फूल
यों ही बस
डाल पर टिके रहे |

ठण्ड में सिकुड़े
रजाई में
दुबके रहे खयाल |

चाय की प्याली में
डूबा रहा
उदास सा मन |

कोशिश के बाद भी
जो करना था
नहीं हुआ |

जाने क्यों आज
माँ की शक्ल
घूमती रही आँखों में |

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

अपने बेटे के लिए चंद सतरें --- २



कभी - कभी अचानक 
सुनता हूँ तुम्हारी आवाज़,
कभी दीखते भी हो तुम
हँसते - हँसाते
पढते - गपियाते,
अपनी विशेष मुद्रा में 
गंभीरता से 
कुछ समझाते | 

उस समय होते हो तुम दूर 
पर फिर भी बहुत पास |

ऐसे में 
जब ढक लेता है मुझे 
यादों का कोई बादल,
मै छाँट कर पहनता हूँ 
तुम्हारा कोई पुराना कपडा
और खुद से बतियाता 
निकल जाता हूँ 
अपने आप से भी दूर 
बहुत - बहुत दूर |


शुक्रवार, 8 जून 2012

सिकुडते हुए

सिकुडते जा रहे हैं दायरे,
कभी वो दिन भी थे
जब सिनेमाघर में
एक बड़े से परदे पर
हम देखते थे कोई फिल्म |

अनंत पिटारे थे हमारे पास
किस्से - कहानियों के
गप्पों और बातों के,
न जाने कब सिकुड गया वह पर्दा
और हम
सिनेमाघर की जगह
सिमट गए महज़ एक कमरे में |

लेकिन तब भी पता नहीं था
कि और सिकुड जायेंगे हम |

अब ये आलम है
कि टी. वी. से भी छोटे
किसे परदे पर
मैं देखता हूँ कोई फिल्म
और तुम उसी कमरे में
कुछ और करते हुए
मेरी तरफ किये हुए पीठ
सुनती रहती हो
उसी फिल्म के संवाद |

शायद यही नियामत है
कि आज भी
एक ही छत के नीचे
बसे है मैं और तुम |

शनिवार, 17 मार्च 2012

अपने बेटे के लिए चंद सतरें -- १

उस दिन मैं आकुल था
बेहद व्याकुल था,
तुम आने वाले थे
और मैं था प्रतीक्षारत |

तुम आये आखिरकार
कुछ यों चूसते अपना अंगूठा
जैसे सारे जहां का
मधुमय उत्स
उसी में छुपा हो |

तुम आये तो सोचा
लो अब बीत गयी प्रतीक्षा ,
नहीं मालूम था मुझे
यह तो महज़ शुरुआत है ,
दरअसल
हर बाप की किस्मत
एक अनंत इंतज़ार है |



बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

नहीं आया वसंत

बीत गयी वसंत पंचमी,
नहीं आया वसंत |

पड़ती रही
बढ़ती- घटती रही
सर्दी मुसलसल,
रूठे बच्चे सा
कहीं बैठा रहा
गुलाबी जाड़ा |

नहीं बढ़ा अन्तःस्राव
नहीँ फूटी बाहर के पेड़ों
या मेरे बौनसाई पौधों में
कोई नई कोपल,
नहीं आयीं कलियाँ
मौसम के फूलों में,
जाड़े के फूल
मुस्कुराते रहे बदस्तूर |

नहीं बदली बयार,
वैसे ही
छूटती रही धूजनी,
नहीं फूली सरसों
जैसा पढ़ा था
किताबों में बचपन से,
क्या झूठा ही रहा है
वसंत और सरसों का सम्बन्ध ?

बीत चली फरवरी
मैं करता रहा इंतज़ार
कि शायद आजायें ' चेपा' ही,
कर दें दूभर
पैदल या दुपहिया पर चलना,
कम-अज़-कम
इससे ही
लगे तो खबर
कि कहीं तो तैय्यार है
सरसों की भरपूर फसल |

मंदिरों में
फागुन में भी होते रहे
पौष-बड़ा आयोजन,
नहीं आई कहीं से
वसंतोत्सव की खबर,
मुंह छिपाकर
सोया रहा कामदेव,
नहीं हुआ
नहीं होता आजकल
मदनोत्सव,
नहीं फैला प्यार
तनिक भी हवाओं में,
पूछा भी मैंने ठंडी हवाओं से
प्यार के बारे में
और उत्तर में पसर गयी
खामोश सी उदासी |

नहीं आया वसंत
बीत गयी
वसंत-पंचमी |

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

आदतन

औरतें
जब होतीं हैं दफ्तर में
तो काम पर ही नहीं होतीं,
कभी भी आ सकता है
उनका फोन
खाना खा लेने,
समय पर दवा लेने,
या लौटते समय
फेहरिस्त का सामान लाने की
हिदायत के साथ |

घर में
सुबह का खाना निबटने के साथ
शुरू हो जाती है उनकी
रात के खाने की चिंता,
रसोई में
वे खाना ही नहीं पकातीं
सरे घर को
भर देतीं हैं
मसालों की गंध से,
लेकिन शाम को
गर खटकते हैं
मर्दों के गिलास
तो टोकती ज़रूर हैं,
यह जानते हुए भी
कि इस मसले पर
सालों से
अनसुनी करते रहे हैं वह |

औरतें
जब होती हैं बच्चों के बीच
तो ज़रूरी नहीं
कि करा रहीं हों होम वर्क
या तैयार कर रहीं हों उन्हें
किसी फंक्शन
या स्कूल के लिए,
वे यह कर रहीं हों तो भी
मुसलसल चलती रहती हैं
उनकी हिदायतें
यह जानते हुए भी
कि आखिरकार मानेंगे नहीं बच्चे |

औरतें
जब होती हैं
सहेलियों के बीच
तो चुहलबाज़ी ही नहीं करतीं,
उनकी बातों में होता है
अपने सहित
सारे जाने-अनजानों का दुःख-दर्द
( लोग इसे गॉसिप कहते हैं )
यह जानते हुए भी
कि कर कुछ नहीं सकतीं हैं वे |

औरतें जब होती हैं
अपने पति नुमा मर्द के साथ
तो बस वहीँ नहीं होतीं,
वे सुनाती हैं
अपने दिन भर की बातें
यह जानते हुए भी
कि पति कि हूँ या हाँ
नहीं है
उसके सुनने का सबूत |

दरअसल
आदमी की ज़रूरत
अक्सर नहीं होती
औरत की दरकार,
आदमी
जब तलाशता है
अपनी पत्नी या प्रेमिका की
कहीं खो गई देह-गंध,
औरत उस समय तक
बंट चुकी होती है
अनेक अबूझ रिश्तों में
इतने चुपचाप
कि आदमी को इसकी
हवा भी नहीं लग पाती |

आदमी के लिए
आश्चर्य होती है औरत
और ताउम्र
वही बनी रहती है
आदतन |
.




मंगलवार, 17 जनवरी 2012

चुनाव



देख रहा हूँ उन्हें
बचपन से |

तब नहीं जानता था
कि वे हैं कौन
हाँ, उनके रिक्शे -तांगे के पीछे
पर्चे लूटने भागना
याद है मुझे |

पिता कहते थे

ये चुनाव के दिन हैं

और मक्कार हैं ये सब
तब मैं नहीं जानता था

मक्कारी का अर्थ |

जब भी वे आते थे
करते थे बातें,
लाते थे ढेर सारे सपने
और मैं सोचता था

कि कितने भले हैं ये लोग

जो मांगते हैं

कोई वोट नाम की चीज़

और देते हैं सुख और आराम के ढेर से वादे|

लेकिन फिर बीत जाता था वह उत्सव

और वे सारे सपनों और नुस्खों के साथ

गायब हो जाते थे

ऐसे ही समझा मैंने
मक्कारी का अर्थ |


समय बदला

और जाना
हर पांच साल में उनका आना

कभी कभी

बीच में भी आते थे वे

लेकिन अब रिक्शे - तांगे में नहीं
बड़े वाहनों में |

बड़े हो गए थे उनके वादे
कहते - सबको देंगे रोटी
और रोटी थाली में आये या न आये
सपनों में ज़रूर आती थी,
सपनों में चमकती थी नौकरी,
मिलता था पीने को साफ़ पानी,
बढ़ने लगता था
खेतों और कारखानों में उत्पादन

और हकीक़त में मजदूर और कामगर
करते रहते थे आत्महत्या |

वे कहते थे

हम देंगे पक्के मकान

और मेरी झोपड़ी भी

गायब हो जाती थी |

वे करते वायदे

गरीबी हटाने के

और गरीब उठ जाते थे

दुनिया से |

वे बात करते सुशासन की

और लड़ा देते लोगों को बेबात |

लगातार सिकुड़ रही थी
हमारी ज़मीन,
बढ़ रहे थे उनके भवन,
खाली हो रहीं थीं

हमारी जेबें
और उनका धन
इस देश से उस देश तक पसरा था |

अब वे फिर आ रहे हैं वोट माँगने
बाँट रहे हैं लुकमानी नुस्खे
दुख -दर्द हरण के

और फिर वही कह रहे हैं लोग
"
मक्कार हैं ये सब "|

लेकिन हमेशा की तरह

इस बार भी दे आयेंगे किसी न किसी को वोट

और फिर हमेशा की तरह

कहीं बिला जायेंगे

सब के सब |