Meri Kavita
रविवार, 10 अगस्त 2014
आज
गुरुवार, 19 सितंबर 2013
अपने बेटे के लिए चंद सतरें --- २
शुक्रवार, 8 जून 2012
सिकुडते हुए
सिकुडते जा रहे हैं दायरे,
कभी वो दिन भी थे
जब सिनेमाघर में
एक बड़े से परदे पर
हम देखते थे कोई फिल्म |
अनंत पिटारे थे हमारे पास
किस्से - कहानियों के
गप्पों और बातों के,
न जाने कब सिकुड गया वह पर्दा
और हम
सिनेमाघर की जगह
सिमट गए महज़ एक कमरे में |
लेकिन तब भी पता नहीं था
कि और सिकुड जायेंगे हम |
अब ये आलम है
कि टी. वी. से भी छोटे
किसे परदे पर
मैं देखता हूँ कोई फिल्म
और तुम उसी कमरे में
कुछ और करते हुए
मेरी तरफ किये हुए पीठ
सुनती रहती हो
उसी फिल्म के संवाद |
शायद यही नियामत है
कि आज भी
एक ही छत के नीचे
बसे है मैं और तुम |
शनिवार, 17 मार्च 2012
अपने बेटे के लिए चंद सतरें -- १
बुधवार, 8 फ़रवरी 2012
नहीं आया वसंत
बुधवार, 1 फ़रवरी 2012
आदतन
मंगलवार, 17 जनवरी 2012
चुनाव
देख रहा हूँ उन्हें
बचपन से |
तब नहीं जानता था
कि वे हैं कौन
हाँ, उनके रिक्शे -तांगे के पीछे
पर्चे लूटने भागना
याद है मुझे |
पिता कहते थे
ये चुनाव के दिन हैं
और मक्कार हैं ये सब
तब मैं नहीं जानता था
मक्कारी का अर्थ |
जब भी वे आते थे
करते थे बातें,
लाते थे ढेर सारे सपने
और मैं सोचता था
कि कितने भले हैं ये लोग
जो मांगते हैं
कोई वोट नाम की चीज़
और देते हैं सुख और आराम के ढेर से वादे|
लेकिन फिर बीत जाता था वह उत्सव
और वे सारे सपनों और नुस्खों के साथ
गायब हो जाते थे
ऐसे ही समझा मैंने
मक्कारी का अर्थ |
समय बदला
और जाना
हर पांच साल में उनका आना
कभी –कभी
बीच में भी आते थे वे
लेकिन अब रिक्शे - तांगे में नहीं
बड़े वाहनों में |
बड़े हो गए थे उनके वादे
कहते - सबको देंगे रोटी
और रोटी थाली में आये या न आये
सपनों में ज़रूर आती थी,
सपनों में चमकती थी नौकरी,
मिलता था पीने को साफ़ पानी,
बढ़ने लगता था
खेतों और कारखानों में उत्पादन
और हकीक़त में मजदूर और कामगर
करते रहते थे आत्महत्या |
वे कहते थे
हम देंगे पक्के मकान
और मेरी झोपड़ी भी
गायब हो जाती थी |
वे करते वायदे
गरीबी हटाने के
और गरीब उठ जाते थे
दुनिया से |
वे बात करते सुशासन की
और लड़ा देते लोगों को बेबात |
लगातार सिकुड़ रही थी
हमारी ज़मीन,
बढ़ रहे थे उनके भवन,
खाली हो रहीं थीं
हमारी जेबें
और उनका धन
इस देश से उस देश तक पसरा था |
अब वे फिर आ रहे हैं वोट माँगने
बाँट रहे हैं लुकमानी नुस्खे
दुख -दर्द हरण के
और फिर वही कह रहे हैं लोग
" मक्कार हैं ये सब "|
लेकिन हमेशा की तरह
इस बार भी दे आयेंगे किसी न किसी को वोट
और फिर हमेशा की तरह
कहीं बिला जायेंगे
सब के सब |